भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की कहानी

भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की कहानी

वैशाख मास की पूर्णिमा पर कूर्म जयंती का पर्व मनाया जाता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार, इसी दिन भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुए) का अवतार लिया था तथा समुद्र मंथन में सहायता की थी। भगवान विष्णु के कूर्म अवतार को कच्छप अवतार भी कहते हैं। कूर्मावतार भगवान के प्रसिद्ध दस अवतारों में द्वितीय अवतार है, और २४ अवतारों में ग्यारहवा अवतार है।
एक समय की बात है कि महर्षि दुर्वासा देवराज इंद्र से मिलाने के लिये स्वर्ग लोक में गये। उस समय देवताओं से पूजित इंद्र ऐरावत हाथी पर आरूढ़ हो कहीं जाने के लिये तैयार थे। उन्हें देख कर महर्षि दुर्वासा का मन प्रसन्न हो गया और उन्होंने विनीत भाव से देवराज को एक पारिजात-पुष्पों की माला भेंट की।
देवराज ने माला ग्रहण तो कर ली, किन्तु उसे स्वयं न पहन कर ऐरावत के मस्तक पर डाल दी और स्वयं चलने को उद्यत हुए। हाथी मद से उन्मत्त हो रहा था उसने सुगन्धित तथा कभी म्लान न होने वाली उस माला को सूंड से मस्तक पर से खींच कर मसलते हुए फेंक दिया और पैरों से कुचल डाला।
यह देखकर ऋषि दुर्वासा अत्यंत क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने शाप देते हुए कहा- रे मूढ़! तुमने मेरी दी हुई माला का कुछ भी आदर नहीं किया। तुम त्रिभुवन की राजलक्ष्मी से संपन्न होने के कारण मेरा अपमान करते हो, इसलिये जाओ आज से तीनों लोकों की लक्ष्मी नष्ट हो जायेगी और यह तुम्हारा यह वैभव भी श्रीहीन हो जाएगा।
इतना कहकर दुर्वासा ऋषि शीघ्र ही वहाँ से चल दिये। श्राप के प्रभाव से इन्द्रादि सभी देवगण एवं तीनों लोक
श्रीहीन हो गये। यह दशा देख कर इन्द्रादि देवता अत्यंत दु:खी हो गये। महर्षि का शाप अमोघ था, उन्हें प्रसन्न करने की सभी प्राथनाएं भी विफल हो गयीं।
तब असहाय, निरुपाय तथा दु:खी देवगण, ऋषि-मुनि आदि सभी प्रजापति ब्रह्माजी के पास गये। ब्रह्मा जी ने उन्हें साथ लेकर वैकुण्ठ में श्री नारायण के पास पहुंचे और सभी ने अनेक प्रकार से नारायण की स्तुति की और बताया कि “प्रभु” एक तो हम दैत्यों के द्वारा अत्यंत कष्ट में हैं और इधर महर्षि के शाप से श्रीहीन भी हो गये हैं।
आप शरणागतों के रक्षक हैं, इस महान कष्ट से हमारी रक्षा कीजिये।
स्तुति से प्रसन्न होकर श्रीहरि ने गंभीर वाणी में कहा- तुम लोग समुद्र का मंथर करो, जिससे लक्ष्मी तथा अमृत की प्राप्ति होगी, उसे पीकर तुम अमर हो जाओगे, तब दैत्य तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट न कर सकेंगे। किन्तु यह अत्यंत दुष्कर कार्य है, इसके लिये तुम असुरों को अमृत का प्रलोभन देकर उनके साथ संधि कर लो और दोनों पक्ष मिलकर समुद्र मंथन करो। यह कहकर प्रभु अन्तर्हित हो गये।
प्रसन्नचित्त इन्द्रादि देवों ने असुरराज बलि तथा उनके प्रधान नायकों को अमृत का प्रलोभन देकर सहमत कर लिया। मथानी के लिये मंदराचल का सहारा लिया और वासुकिनाग की रस्सी बनाकर सिर की ओर दैत्यों ने तथा पूछ की ओर देवताओं ने पकड़ कर समुद्र का मंथन आरम्भ कर दिया।
किन्तु अथाह सागर में मंदरगिरी डूबता हुआ रसातल में धसने लगा। यह देखकर अचिन्त्य शक्ति संपन्न लीलावतारी भगवान श्रीहरि ने कूर्मरूप धारण कर मंदराचल पर्वत अपनी पीठ पर धारण कर लिया। भगवान कूर्म की विशाल पीठ पर मंदराचल तेजी से घूमने लगा और इस प्रकार समुद्र मंथन संपन्न हुआ।

What's Your Reaction?

like

dislike

love

funny

angry

sad

wow